Vivekananda : स्वामी विवेकानंद की वाणी उन्हीं की जुबानी ,Swami Vivekananda's words in his own words

0

✍️स्वामी गोपाल आनंद बाबा

15 जनवरी 1887 पौष शुक्ल दशमी विक्रम संवत 1953 को कोलम्बों में भारत माता के पुत्र स्वामी विवेकानंद का विजेता के रूप में अपार जन समूह ने स्वागत किया। ऐसा ही स्वागत भारत के दक्षिण समुद्रतट पम्बन व रामनाथपुरम में भी हुआ। कोलम्बो के उनके व्याख्यान भारत की आत्मा को झकझोरने वाले थे जिससे भारत आलोकित हुआ और उसने अपना खोया हुआ सम्मान पुन: प्राप्त किया। उन्होंने क्या कुछ कहा, उस पर विहंगम दृष्टि ही उस लेख का आशय है। 'यदि पृथ्वी पर कोई ऐसा देश है, जिसे हम धन्य पुण्यभूमि कह सकते हैं यदि ऐसा कोई स्थान है, जहां पृथ्वी के सब जीवों को अपना कर्मफल भोगने के लिए आना पड़ता है, यदि कोई ऐसा स्थान है जहां भगवान की ओर उन्मुख होने के प्रयत्न में संलग्न रहने वाले जीवमात्र को अन्तत: आना होगा, यदि कोई ऐसा देश है जहां मानव जाति की क्षमा, धृति, दया, शुद्धता आदि सदवृतियां का सर्वाधिक विकास हुआ है और ऐसा कोई देश है जहां आध्यात्मिकता तथा आत्मान्वेषण का सर्वाधिक विकास हुआ है, तो वह भूमि भारत ही है। अत्यंत प्राचीन काल से ही यहां पर भिन्न-भिन्न धर्मों के संस्थापकों ने अवतार लेकर सारे संसार को सत्य की आध्यात्मिक सनातन और पवित्र धारा से बारम्बार प्लावित किया है।

यही से उत्तर-दक्षिण, पूर्व और पश्चिम चारों ओर दार्शनिक ज्ञान की प्रबल धाराएं प्रवाहित हुई हैं और यहीं से वह धारा बहेगी जो आजकल की पार्थिव सभ्यता को आध्यात्मिक जीवन प्रदान करेगी। विश्वास करो, मेरे मित्रों, यह होकर ही रहेगा। सम्पूर्ण जगत को प्रकाश की आवश्यकता है यह प्रकाश केवल भारत में ही है....इसीलिए ईश्वर ने इस जाति को आज तक सभी प्रकार की विपदाओं से सुरक्षित बचाकर रखा है।

अब वह समय आ गया है तुम सब कुछ हो, मेरे सिंह के समान बहादुरों यह विश्वास करो कि तुम्हारा जन्म ही इस महान कार्य के लिए हुआ है। यहां तक कि आकाश ही क्यों गिर पड़े। खड़े हो जाओ और काम में लग जाओ। आध्यात्मिक विचार ही जीवनदायी सिद्धांत है न कि सैंकडों अन्धविश्वास जिन्हें हमने शताब्दियों से अपने सीने से लगा रखा है। सबसे अलग, अति उत्तम और आध्यात्मिक क्षेत्र में आश्चर्यजनक खोज जो अभी तक कहीं हुई नहीं है, वह है स्वाभाविक रूप से आत्मा शुद्ध, पूर्ण, अक्षुण्ण व शक्तिशाली है।

प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है। बाह्य एवं अन्त: प्रकृति को वशीभूत करके आत्मा के इस ब्रह्मभाव को व्यक्त करना ही जीवन का चरम लक्ष्य है। कर्म, उपासना, मन: संयम अथवा ज्ञान, इनमें से एक एक से अधिक या सभी उपायों का सहारा लेकर अपने ब्रह्म भाव को व्यक्त करो और मुक्त हो जाओ। बस यही धर्म का सर्वस्व है। मत अनुष्ठान, पद्धति, शास्त्र, मंदिर अथवा अन्य बाह्य क्रियाकलाप तो उसके गौण अंग प्रत्यंंग मात्र है। दूसरा एक विचार जिसे आज सारा संसार यूरोप ही नहीं पूर्ण संसार की मनीषा हमसे चाह रही है वह है सृष्टि के आध्यात्मिक एकत्व का शाश्वत गहन विचार।' (विनायक फीचर्स)

Post a Comment

0 Comments
Post a Comment (0)

--ADVERTISEMENT--

--ADVERTISEMENT--

NewsLite - Magazine & News Blogger Template

 --ADVERTISEMENT--

To Top